कड़ी धूप में चलना मुश्किल
फिर भी चलते हैं
कामगार मजदूर दिहाड़ी
यूँ ही पलते हैं।
तेल कड़ाही-सा दिन खौले
सूरज भट्ठी-सा
लू का थप्पड़ चोट मारता
पत्थर गिट्टी-सा
देखो अमलताश गुलमोहर
फिर भी खिलते हैं।
मुस्काएँ कुछ लोग यहाँ पर
घनी छाँव बैठे
भरे बखारों के बलबूते
कुछ चूल्हे ऐंठे
लाख दियों के तेल छीन, कुछ-
झालर जलते हैं।
नींद कहाँ छिपकर है बैठी
बिस्तर खाटों में
सफर कहाँ सिमटा है, केवल कुछ-
फर्राटों में
कदम-कदम चलकर मीलों के
पत्थर मिलते हैं।
रोटी नहीं पेट पीठों के
तावे सिंकते हैं
तब जाकर शहरों में मीठे
गन्ने बिकते हैं
महँगे रस में ढले बर्फ-सा
दर्द पिघलते हैं।